ममता सरकार की विदाई का संकेत त्रिवेदी का इस्तीफा – प्रेम शर्मा

पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अब पाॅच महीने से भी कम का समय बचा है, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) में तकरार चरम पर है.पश्चिम बंगाल में चुनाव से काफी वक्त पहले से ही राजनीतिक हिंसा का दौर जारी है।तृणमूल कांग्रेस पर मंडराता संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। केंद्रीय स्तर पर तृणमूल का चेहरा माने जाने वाले दिनेश त्रिवेदी ने राज्यसभा में ही अपने इस्तीफे का एलान करकेEditorial सबको न केवल चैंका दिया है, बल्कि पश्चिम बंगाल में तृणमूल की मुश्किलों को बहुत बढ़ा भी दिया है। इस्तीफे का एलान करते हुए दिनेश त्रिवेदी ने जो उद्गार व्यक्त किए हैं, वह काबिले गौर हैं।
उन्होंने साफ कहा है कि मुझसे अब देखा नहीं जा रहा, मुझे घुटन महसूस हो रही है। आज मैं देश के लिए, बंगाल के लिए अपना इस्तीफा दे रहा हूं। पश्चिम बंगाल में अब तक हमने मध्य पीढ़ी के नेताओं को ही तृणमूल छोड़कर जाते देखा है, लेकिन पार्टी का एक दिग्गज और अपेक्षाकृत ज्यादा शालीन नेता अगर कह रहा है कि उसे घुटन महसूस हो रही है, तो यह तृणमूल के लिए खतरे की घंटी है। दिनेश त्रिवेदी से पूर्व भी काफी नेताओं ने तुणमूल कांग्रेस का साथ छोड़कर भाजपा का दामन थामा था लेकिन तब इस बाॅत का संकेत यह नजर नही आ रहा था कि बंगाल में तृणमूल का आगामी चुनाव में सफाया हो जाएगा लेकिन दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफे के बाद इतना तय है कि पश्चिम बंगाल से ममता सरकार की बिदाई का संकेत मिल गया है।
बीजेपी और टीएमसी के कार्यकर्ता कई बार आपस में लड़ चुके हैं।लेकिन बिहार में सत्ता में वापसी के बाद भाजपा के हौसले इतने बुलंद हैं कि उसने पश्चिम बंगाल में 200 से ज्यादा सीटें जीतने का लक्ष्य तय कर लिया है। इस बात में कोई शक नहीं कि करीब 6 दशकों तक जनसंघ के संस्थापक डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की धरती पर राजनीति में बेगाने रहे जनसंघ और भाजपा 2014 की मोदी लहर के बाद से एक प्रभावी सियासी शक्ति के तौर पर स्थापित हुई है। 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके प्रदर्शन ने उनके हौसले को और ज्यादा उड़ान दी है। इसी का परिणाम है कि 2021 मे होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा हर हाल या यू कहे कि राजनीति में सब कुछ जायज है स्टाइल में पश्चिम बंगाल पर हमलावर हो चुकी है। लेकिन, इतनी प्रगति के बावजूद इस राज्य में ममता बनर्जी को टक्कर देकर विधानसभा चुनावों में भगवा लहराना उसके लिए शायद बहुत ही ज्यादा चुनौतीपूर्ण साबित होने वाला है।
यह आंकलन किसी धारणा के आधार पर नहीं, चुनावी आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर किया जा रहा है। देखा जाए तो इस बात में कोई दो राय नहीं कि 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने बंगाल में काफी बेहतरीन प्रदर्शन किया है। उसको 40.64 प्रतिशत वोट मिले और उसने 18 सीटें जीत लीं। इस हिसाब से ममता की टीएमसी को कुल 42 सीटों में से उससे सिर्फ 4 सीटें ज्यादा यानि 22 सीटें मिलीं और महज 3 प्रतिशत ज्यादा यानि 43.69 प्रतिशत वोट मिले थे। अगर 2014 के भाजपा के प्रदर्शन से इसकी तुलना करेंगे तो यही समझ में आएगा कि अगले चुनाव के लिए उसका मैदान साफ है। क्योंकि, तब उसे सिर्फ 17.02 प्रतिशत वोट और दार्जीलिंग और आसनसोल की दो सीटें ही मिली थीं।
2021 के चुनाव में तृणमूल के पास नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के विरोध जैसा मुद्दा है। करीब 27 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य में उसके पास धृवीकरण के लिए यह सबसे बड़ा हथियार साबित हो सकता है। भाजपा इसी एजेंडे के खिलाफ तुष्टिकरण का आरोप लगाकर अपने लिए भगरीथ प्रयास में जुटी हुई है। उसकी पूरी कोशिश होगी कि अगर मुस्लिम वोटों को गोलबंद करने में ममता बनर्जी जुटी हैं तो पार्टी गैर-मुस्लिम वोट को अपने हक में गोलबंद करे। बंगाल की लड़ाई में कांग्रेस-लेफ्ट गठबंधन और ओवैसी भी बड़े फैक्टर बन सकते हैं। यही फैक्टर ममता बनर्जी की विदाई का मूल कारण बनेगें। यहाॅ इस बाॅत पर भी गौर करना हो कि पश्चिम बंगाल में चुनाव की तारीखें अब नजदीक आ रही हैं। अगले साल अप्रैल मई में रणभेरी बजेगी। हाल ही में हुए बिहार चुनाव जीतने के बाद भाजपा का मनोबल हाई है।
अब उसके सामने पश्चिम बंगाल में तृणमूल का किला ढहाने की चुनौती है। उसके बड़े नेताओं ने बंगाल में डेरा जमा लिया है। वहीं टीएमसी भी भाजपा पर वार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। इस बीच कांग्रेस और लेफ्ट पार्टी ने भी अपने गठबंधन का ऐलान कर दिया है। यानी पश्चिम बंगाल में इस बार टीएमसी भाजपा और लेफ्ट-कांग्रेस गठबंधन के बीच मुकाबला त्रिकोणीय होने जा रहा है।पश्चिम बंगाल कभी लेफ्ट का गढ़ हुआ करता था। 34 साल तक लेफ्ट की सरकार रही। लेकिन, 2006 के बाद उसके पतन का दौर शुरू हुआ, जिसके बाद वो कभी उबर नहीं सकी। चाहे लोकसभा हो, विधानसभा हो या फिर पंचायत चुनाव, हर जगह उसका दायरा घट रहा है।
हालांकि इस बार बिहार चुनाव में लेफ्ट विंग का बढ़िया प्रदर्शन रहा है। 29 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद लेफ्ट ने 55 से ज्यादा के स्ट्राइक रेट के साथ 16 सीटों पर जीत दर्ज की है। इससे उनका कॉन्फिडेंस जरूर बढ़ा है। पिछले विधानसभा में लेफ्ट और उसके सहयोगियों को 32 सीटें मिली थीं। अब ये देखना दिलचस्प होगा कि लेफ्ट आने वाले चुनाव में बिहार का प्रदर्शन दोहरा पाती है या नहीं। पश्चिम बंगाल में चुनाव की तारीखें अब नजदीक आ रही हैं। अप्रैल मई में रणभेरी बजेगी। हाल ही में हुए बिहार चुनाव जीतने के बाद भाजपा का मनोबल हाई है। अब उसके सामने पश्चिम बंगाल में तृणमूल का किला ढहाने की चुनौती है। उसके बड़े नेताओं ने बंगाल में डेरा जमा लिया है। वहीं टीएमसी भी भाजपा पर वार करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। इस बीच कांग्रेस और लेफ्ट पार्टी ने भी अपने गठबंधन का ऐलान कर दिया है।
पश्चिम बंगाल कभी लेफ्ट का गढ़ हुआ करता था। 34 साल तक लेफ्ट की सरकार रही। लेकिन, 2006 के बाद उसके पतन का दौर शुरू हुआ, जिसके बाद वो कभी उबर नहीं सकी। चाहे लोकसभा हो, विधानसभा हो या फिर पंचायत चुनाव, हर जगह उसका दायरा घट रहा है।ममता बनर्जी अब तक यही मानती आ रही हैं कि उनकी पार्टी के ‘दागदार’ नेताओं के लिए भाजपा वॉशिंग मशीन है। क्या वह दिनेश त्रिवेदी को भी दागदार मानेंगी? अब यह देखने वाली बात है कि तृणमूल अपने वरिष्ठ नेता पर कैसे हमलावर होगी। दिनेश त्रिवेदी के आरोप कहीं गहरे हैं कि पार्टी को ऐसे लोग चला रहे हैं, जो राजनीति का क ख ग नहीं जानते।
उल्लेखनीय है कि करीब 40 नेता पार्टी नेतृत्व से नाराजगी जताते हुए भाजपा में शामिल हो चुके हैं और उन सभी के बारे में ममता बनर्जी के विचार बुरे हैं। पार्टी छोड़ने वालों को ‘सड़े सेब’ से ‘मीर जाफर’ तक कहा गया है। अब यह विश्लेषण का विषय है कि दिनेश त्रिवेदी के इस्तीफे से पश्चिम बंगाल की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? उनके भारतीय जनता पार्टी में आने से समीकरण कितने बदलेंगे? क्या यह भाजपा की एक बड़ी राजनीतिक कामयाबी है? भाजपा तो पहले ही बोल चुकी है कि चुनाव आने तक ममता बनर्जी अकेली पड़ जाएंगी, क्या वाकई बंगाल के समीकरण उसी दिशा में बढ़ रहे हैं?




