क्यों शहद के नाम पर जहर घोल जाते हैं तनिष्क जैसी कंपनियों के विज्ञापन? क्या विज्ञापन में हिदू-मुस्लिम घुसेड़ना जरूरी है?

दोपहर को एक खबर पढ़ रहा था। उत्तर प्रदेश के लखनऊ में एक महिला ने आग लगाकर जान देने की कोशिश की। पुलिस ने तुरंत आग बुझाई और अस्पताल में भर्ती कराया, लेकिन उसकी हालत गंभीर बनी हुई है। आगे पढ़ा तो पता चला महिला पहले हिंदू थी और उसने धर्म बदलकर करके आसिफ नाम के शख्स से निकाह किया था। इसके बाद ससुराल में उसकी प्रताड़ना शुरू हुई। महिला आई सीएम योगी जी के पास शिकायत करने ओ वो मिल नहीं पाए तो खुद को ही आग लगा ली।…
इसके दो मिनट बाद ही एक विज्ञापन देखा। विज्ञापन था ज्वैलरी बनाने वाली कंपनी तनिष्क का। इसमें दिखाया गया है कि एक गर्भवती हिंदू महिला एक मुस्लिम घर में है। गर्भवती महिला को सहारा दे रही है एक बूढ़ी मुस्लिम औरत। उसे घर के ऐसी जगह पर लाया जाता है जहां खूब सजावट हो रखी है। विज्ञापन से पता चलता है कि आज उसका बेबी शावर यानि गोद भराई है। ऐसे में वह गर्भवती हिंदू महिला मुस्लिम औरत से कहती है- मां ये रसम तो आपके यहां नहीं होती।… मुस्लिम औरत का जवाब आता है- बेटी की खुशियों की रसम तो हर जगह होती है।… और इसीके साथ एड खत्म।
(मैं आपसे ऊपर वाली घटना और नीचे वाले विज्ञापन से जोड़ने के लिए नहीं कहूंगा। क्योंकि मैं इसे मात्र एक संयोग मान रहा हूं।)
अब आते हैं इस विज्ञापन पर। विज्ञापन देखकर आप समझ जाते हैं कि एक हिंदू लड़की की शादी मुस्लिम घर में हुई है और मुस्लिम परिवार उसके रीति रिवाज का पालन और देखभाल बहुत अच्छे से कर रहा है। दरअसल, सबसे पहली तकलीफ इस बात से है कि इस विज्ञापन में किसी बॉलीवुड फिल्म की तरह बहुत सारी खामियों के साथ ढेर जारा जबरिया इमोशन घुसेड़ने की कोशिश की गई है।
दिक्कत नं. 1-
विज्ञापन से साफ समझ आ रहा है कि उस महिला की शादी के बाद पहली बार उसके हिदू धर्म की कोई रसम निभाई जा रही है। जबकि हिदू धर्म में शादी के बाद बहु के घर में घुसने से पहले ही हजार तरह की रसमें होती हैं। हमारे यहां तो पहले मंदिर में पूजा होती है फिर पंडित जी से भगवान की कथा सुनी जाती है। मेरा सवाल ये है कि क्या उस महिला के साथ ये सब नहीं हुआ था? क्या शादी के बाद उसकी कोई रसम नहीं निभाई गई? और अगर तब नहीं निभाई गई तो अब क्यों? क्या इसकी ये वजह है कि वह मुस्लिम परिवार को एक वारिस देने जा रही है? तब तो यह विज्ञापन बहुत ही सेक्सिस्ट हुआ।
दिक्कत नं. 2-
अब आते हैं दूसरी दिक्कत पर। आखिर क्यों विज्ञापनों में हिंदू-मुस्लिम को साथ घुसेड़ने की कोशिश होती है। क्या दोनों धर्मों के अ लग-अलग विज्ञापन नहीं बन सकते? क्या उन विज्ञापनों से सौहार्द की शिक्षा नहीं दी जा सकती?
दरअसल, आपने गांधी जी के तीन बंदर की कहानी सुनी होगी। वे कहते थे- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो। मेरी दिक्कत यहीं से पैदा होती है। अगर गांधी जी के बंदरों ने कहा होता- अच्छा देखो, अच्छा सुनो और अच्छा बोलो तो शायद बुरे को न देखने, बोलने और सुनने की जरूरत नही न पड़ती। विज्ञान में बताया जाता है कि हमारा मस्तिष्क चीजों को हमेशा फोटो के रूप में याद रखता है। अगर मैं आपसे कहूं कि आप अपने फलां मित्र को याद मत कीजिए। ऐसे में आपके मन में जो सबसे पहला ख्याल आएगा वो उस फलां मित्र का ही होगा। और अगर मैं दिल से चाहता हूं की आप अपने फलां मित्र को याद न करें तो मैं आपसे किसी दूसरे मित्र की बात करूंगा और आपका ध्यान उस फलां मित्र तक जाने ही नहीं दूंगा।
यही सिद्धांत लागू होता है इस विज्ञापन पर। अगर तनिष्क सच में चाहता है कि दोनों कम्युनिटी में सौहार्द बढ़े तो इस मिक्सअप विज्ञापन की जगह दो विज्ञापन दे देता। विवाद की कोई जड़ ही नहीं पैदा होती।
दिक्कत नं. 3-
तीसरी दिक्कत मुझे इस बात से है कि हमेशा मुस्लिम के घर में हिदू बहू ही क्यों? अगर तनिष्क इंटरफेथ मैरिज को बढ़ावा देना चाहता है तो हिंदू घर में मुस्लिम बहू भी तो हो सकती थी। क्या उन्हें भी डीयू के उस स्टूडेंट की हत्या ने डरा दिया था, जिसको मुस्लिम लड़की से दोस्ती के चलते मार दिया गया। सौहार्द तो दोनों पक्षों से होता है यह एक पक्षीय सौहार्द लादने की क्यों कोशिश हो रही है? क्या हिंदुओं की बेटियों के बिना अमन कायम नहीं हो सकता? तनिष्क इस विज्ञापन से क्या यह साबित करना चाहता है कि सौहार्द तभी आएगा और दिलों के बीच की दूरी तभी मिटेगी जब हिंदू की बेटी किसी मुस्लिम के घर जाएगी।
तनिष्क का यह कोई पहला ऐसा विज्ञापन नहीं है। पहले भी ऐसे विज्ञापनों की भरमार रही है, जिसमें हिंदुओं को बदमाश दिखाया गया है। रेड लेबल टी के ही विज्ञापन ले लीजिए। इसके हम दो विज्ञापन बता रहे हैं।
विज्ञापन नं. 1-
एक हिंदू ग्राहक गणेश चतुर्थी के दिन गणेश प्रतिमा लेने जाता है। दुकानदार उसे तमाम तरह की प्रतिमा दिखाता है और गणेश के कई रूपों का ऐसे वर्णन करता है जैसे कोई विद्बान। हिदू ग्राहक उससे प्रभावित हो ही रहा होता है कि अजान सुनाई पड़ती है और दुकानदार जेब से मुस्लिम टोपी निकालकर पहन लेता है। अब हिदू ग्राहक को ये खटक जाता है कि बप्पा की मूर्ति किसी मुस्लिम के हाथ के कैसे लें। तभी छोटू रेड लेबल चाय लेकर आ जाता है और उसे पीने के बाद हिदू ग्राहक की अक्ल खुल जाती है और वह मूर्ति का आर्डर देकर चला जाता है।
दिक्कत कहां-
इस विज्ञापन में हिंदू को भेदभाव करने वाला दिखाया गया है। रेड लेबल इस विज्ञापन के जरिए तथाकथित रूप से भेदभाव मिटाने का ज्ञान दे रहा है। लेकिन, वह यह भूल गया कि बच्चों से मजदूरी कराना अपराध है। विज्ञापन में एक नाबालिग को चाय लाते दिखाया गया है। क्या इतना ही कमजोर है इनका ज्ञान कि एक सही संदेश देने की कोशिश में दूसरा गलत संदेश दे दें?
विज्ञापन नं. 2-
एक हिदू परिवार है, जिसमें पति और पत्नी हैं। घर आते हैं तो चाभी भूल जाते हैं। बगल में रहने वाली मुसलमान पड़ोसी कहती है कि घर आकर चाय पी लीजिए तो हिदू आदमी मना कर देता है। मुसलमान पड़ोसी फिर से पूछती है तो वो फिर मना कर देता है। आखिर में थक कर वह उसी मुसलमान पड़ोसी के घर पहुंचता है। चाय पीता है और उसकी सोच बदल जाती है।
दिक्कत कहां-
दरअसल, इस वाले विज्ञापन को देखकर यही कहेंगे कि वाकई में हिंदू कितने बदमाश होते हैं। इनका भेदभाव खत्म ही नहीं होता। इनकी सोच कब मुसलमानों के स्तर तक पहुंचेगी। रेड लेबल का एक और विज्ञापन है, जिसमें हिदू लड़का अपने बाप को कुंभ मेले में छोड़कर भाग जाता है।
इस तरह घड़ी, सर्फ एक्सल, सिप्ला और जाने कितनी कंपनियों के विज्ञापन भरे पड़े हैं जिनमें हिदू को पक्षपाती, कम अक्ल, निकम्मा और बदमाश साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। कहने का यह मतलब नहीं है कि हिंदू धर्म में कोई बुराई नहीं है। लेकिन यह साबित करना कि सिर्फ हिंदू धर्म में बुराई है ये एजेंडा नहीं चलना चाहिए।